वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक, किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं। - आचार्य श्रीराम शर्मा
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प्रस्तुत पुस्तिका में गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर के अमृत वचनों का संकलन है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है।
वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगद्रष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति है। वे एकमात्र कावि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान
जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान
आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
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'राग-संवेदन'
श्री महेन्द्र भटनागर का कविता संग्रह है जिसमे उनकी 50 कवितायेँ दी गयी है।
महेन्द्र भटनागर जी वरिष्ठ रचनाकार है जिनका हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य पर समान दखल है। सन् 1941 से आरंभ आपकी रचनाशीलता आज भी अनवरत जारी है।
आपकी प्रथम प्रकाशित कविता 'हुंकार' है; जो 'विशाल भारत' (कलकत्ता) के मार्च 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। आप सन् 1946 से प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे हैं तथा प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर माने जाते हैं।आप सन् 1946 से प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे हैं तथा प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर माने जाते हैं। समाजार्थिक यथार्थ के अतिरिक्त आपके अन्य प्रमुख काव्य-विषय प्रेम, प्रकृति, व जीवन-दर्शन रहे हैं। आपने छंदबद्ध और मुक्त-छंद दोनों में काव्य-सॄष्टि की है। आपका अधिकांश साहित्य 'महेंद्र भटनागर-समग्र' के छह-खंडों में एवं काव्य-सृष्टि 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' के तीन खंडों में प्रकाशित है। अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।
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महेंद्रभटनागर-विरचित काव्य-कृति 'जूझते हुए' में मनुष्य की संघर्ष-गाथा को वाणी प्रदान की गयी है।
सन् १९८४ में, 'किताब महल', इलाहाबाद से प्रकाशित प्रस्तुत कृति में सन् १९७२ से १९७६ तक की रचित ४५ कविताएँ समाविष्ट हैं। कथ्य की दृष्टि से इसमें अनेक प्रकार की कविताएँ संकलित हैं। यथा — आत्म-बोध की कविताएँ, समकालीन विडम्बनाओं को प्रत्यक्ष करती व्यंग्य कविताएँ, आपात्काल का विरोध करते बुलन्द स्वर, श्रमजीवी वर्ग की वाम-चेतना आदि। प्रकृति और प्रणय को भी इसमें स्थान मिला है। प्रगतिवादी-जनवादी हिन्दी-कविता की कृति 'जूझते हुए' कवि महेंद्रभटनागर के कविता-सरोकारों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करत्ती है।
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श्री नन्दलाल भारती का उपन्यास 'दमन' अपनी हिंदी में प्रस्तुत है।
इनकी रचनाओं का देश की कई पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन होता रहता है।
इनकी प्रमुख कृतिया इस प्रकार है -
उपन्यास-अमानत, प्रतिनिधि पुस्तकें- काली मांटी, निमाड की माटी मालवा की छाँव,ये आग कब बुझेगी । उपन्यास-दमन,चांदी की हँसुली एवं अभिशाप, कहानी संग्रह-मुट्ठी भर आग, हँसते जख़्म एवं सपनों की बारात, लघुकथा संग्रह-उखड़े पाँव, कतरा-कतरा आँसू एवं एहसास । काव्यसंग्रह -कवितावलि, काव्यबोध । आलेख संग्रह-विमर्श एवं अन्य ।
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आप सभी के लिए प्रस्तुत है श्री नन्दलाल भारती का उपन्यास -
चांदी की हंसुली ।
इनकी रचनाओं का देश की कई पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन होता रहता है।
इनकी प्रमुख कृतिया इस प्रकार है -
उपन्यास-अमानत, प्रतिनिधि पुस्तकें- काली मांटी, निमाड की माटी मालवा की छाँव,ये आग कब बुझेगी । उपन्यास-दमन,चांदी की हँसुली एवं अभिशाप, कहानी संग्रह-मुट्ठी भर आग, हँसते जख़्म एवं सपनों की बारात, लघुकथा संग्रह-उखड़े पाँव, कतरा-कतरा आँसू एवं एहसास । काव्यसंग्रह -कवितावलि, काव्यबोध । आलेख संग्रह-विमर्श एवं अन्य ।
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'राखी की लाज' वृन्दावनलाल वर्मा का एक प्रसिद्ध नाटक है।
प्रस्तुत नाटक बीरबल, जहाँदारशाह के जीवन पर आधारित है .
आवारा मेघराज की गाँठ में राखी बँधने के समय पैसे न थे, अथवा वह राखी बाँधने वाली अपनी बहन को पैसों से बढ़कर कुछ और देना चाहता था-और उसने दिया।विंध्यखंड में क्या, हिंदुस्थान भर में सावन बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। बहन भाई को राखी बाँधती है और भाई उसको कुछ देता है। असल में परंपरा इस राखी के डोरे द्वारा बहन के सिर पर भाई की रक्षा का हाथ रखवा देने की है, जो कभी न हटना चाहिए। प्रतिवर्ष सावन की पूनो को इस बंधन की आवृत्ति होती है। जब कोई लड़की या स्त्री किसी ऐसे पुरुष को राखी बाँध देती है, जो उसका भाई नहीं है, तब वह राखी उन दोनों के बीच में भाई बहन का संबंध स्थापित कर देती है और इस बहन की रक्षा का भार उस भाई पर आ जाता है। अधिकांश पुरुष इस भार को पैसे दे-दिवाकर सिर से उतार देते हैं। और करें भी तो क्या ! इतनी राखियाँ हाथ में पड़ जाती हैं कि समस्या का हल परंपरा ने पैसे या चाँदी के दान द्वारा सहज कर दिया है।
परंतु आवारा मेघराज की गाँठ में राखी बँधने के समय पैसे न थे, अथवा वह राखी बाँधने वाली अपनी बहन को पैसों से बढ़कर कुछ और देना चाहता था-और उसने दिया।
यह नाटक नई सज-धज और नए लिंकों के साथ फिर से प्रस्तुत किया जा रहा है.
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(राजा रवि वर्मा)
(राजा रवि वर्मा की कृति 'ग्वालन')
एक ऐसा चित्रकार जो अपनी कला के कारण राजा कहलाया ।
जिसके सम्मान में गर्वनर को भी खड़ा होना पड़ा ।
जिसने भारतीय चित्रकला का पुरे विश्व में डंका बजा दिया।
राजा रवि वर्मा(१८४८-१९०६) भारत के विख्यात चित्रकार थे। उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति के पात्रों का चित्रण किया। उनके चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता हिंदू महाकाव्यों और धर्मग्रंथों पर बनाए गए चित्र हैं। हिंदू मिथकों का बहुत ही प्रभावशाली इस्तेमाल उनके चित्रों में दिखता हैं।
उनके चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता हिंदू महाकाव्यों और धर्मग्रंथों पर बनाए गए चित्र हैं। हिंदू मिथकों का बहुत ही प्रभावशाली इस्तेमाल उनके चित्रों में दिखता हैं।
राजा रवि वर्मा का जन्म २९ अप्रैल १८४८ को केरल के एक छोटे से गांव किलिमन्नूर में हुआ। पांच वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने अपने घर की दीवारों को दैनिक जीवन की घटनाओं से चित्रित करना प्रारंभ कर दिया था।
उनके चाचा कलाकार राजा राजा वर्मा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और कला की प्रारंभिक शिक्षा दी। चौदह वर्ष की आयु में वे उन्हें थिरुवनंतपुरम ले गये जहाँ राजमहल में उनकी तैल चित्रण की शिक्षा हुई। बाद में चित्रकला के विभिन्न आयामों में दक्षता के लिये उन्होंने मैसूर, बड़ौदा और देश के अन्य भागों की यात्रा की।
राजा रवि वर्मा की सफलता का श्रेय उनकी सुव्यवस्थित कला शिक्षा को जाता है। उन्होंने पहले पारंपरिक तंजावुर कला में महारत प्राप्त की और फिर यूरोपीय कला का अध्ययन किया। डाक्टर आनंद कुमारस्वामी ने उनके चित्रों का मूल्यांकन कर कलाजगत् में उन्हें सुप्रतिष्ठित किया। ५७ वर्ष की उम्र में १९०५ में उनका देहांत हुआ।
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रहीम मध्यकालीन सामंतवादी संस्कृति के कवि थे। रहीम का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न था।
वे एक ही साथ सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि एवं विद्वान थे। रहीम सांप्रदायिक सदभाव तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक थे।
रहीम कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे।
रहीम के बारे में यह कहा जाता है कि वह धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे।
आपके अंदर वह सब गुण मौजूद थे, जो महापुरुषों में पाये जाते हैं। आप ऐसे सौ भाग्यशाली व्यक्तियों में से थे, जो अपनी उभयविद्य लोकप्रियता का कारण केवल ऐतिहासिक न होकर भारतीय जनजीवन के अमिट पृष्टों पर यश शरीर से जीवित पाये जाते हैं।
आप एक मुसलमान होते हुए भी हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर आपने जो मार्मिक तथ्य अंकित किये थे, उनकी विशाल हृदयता का परिचय देती हैं। हिंदू देवी- देवताओं, पवाç, धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का जहाँ भी आपके द्वारा उल्लेख किया गया है, पूरी जानकारी एवं ईमानदारी के साथ किया गया है। आप जीवन पर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे। रहीम ने अपने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और लौकिक जीवन व्यवहार पक्ष को उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है, जो सामाजिक सौहार्द एवं भारतीय सांस्कृति की वर झलक को पेश करता है, जिसमें विभिन्नता में भी एकता की बात की गई है।
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'भारत के जनप्रिय सम्राट' पुस्तक में लेखक फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने भारत के उन सम्राटो का संक्षिप्त वर्णन किया है जो जनता में अत्यधिक् लोकप्रिय रहे है .
पुस्तक में कुल २१ शासकों के बारे में बताया गया है .
इनकी सूची नीचे चित्र में दी जा रही है :
जैसे की
राजा भोज परमार .
परमार भोज परमार वंश
के नवें राजा थे। परमार (पवार(हिन्दी)/ पोवार(मराठी)) वंशीय राजाओं ने
मालवा की राजधानी धारानगरी से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के
पूर्वार्ध तक राज्य किया था।
भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा
स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उसमें असाधारण योग्यता थी।
यद्यपि उसके
जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उसने अपने राज्य की उन्नति
में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उसने मालव के नगरों व ग्रामों
में बहुत से मंदिर
बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।
वह स्वयं बहुत विद्वान
था और कहा जाता है कि उसने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण,
काव्य, औषध-शास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी
वर्तमान हैं। इसके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। इसने सन्
1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया।
सरस्वतीकंठाभरण उनकी प्रसिद्ध रचना है।
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'राष्ट्रपिता को रोते देखा ' पुस्तक में महात्मा गाँधी पर आधारित कविताओं का संग्रह है . इसे नर्मदा प्रसाद खरे ने लिखा है।
महात्मा गाँधी बीसवीं सदी के सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं; जिनकी
अप्रत्यक्ष उपस्थिति उनकी मृत्यु के साठ वर्ष बाद भी पूरे देश पर देखी जा
सकती है।
उन्होंने भारत की कल्पना की और उसके लिए कठिन संघर्ष किया।
स्वाधीनता से उनका अर्थ केवल ब्रिटिश राज से मुक्ति का नहीं था बल्कि वह
गरीबी, निरक्षरता और अस्पृश्यता जैसी बुराइयों से मुक्ति का सपना देखते थे।
वह चाहते थे कि देश के सारे नागरिक समान रूप से आज़ादी और समृद्धि का सुख
पा सकें।
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आप सभी के लिए पेश है एक दुर्लभ पुस्तक
- 'प्रेमचंद घर में' । इसे प्रेमचंद की पत्नी
शिवरानी देवी ने लिखा है।
ये पुस्तक आकर में काफी बड़ी होने के कारण 3 भागों में प्रस्तुत की जा रही है। जिससे आपको डाउनलोड करने में आसानी हो।
'प्रेमचंद घर में' अपने आप मे एक अनूठी पुस्तक है. इसमे एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है-
'कलम का मजदूर'.
शिवरानी
जी ने बेहद छोटे-छोटे डिटेल्स के माध्यम घर-परिवार , नातेदारी-रिश्तेदारी,
लेखन -प्रकाशन की दुनिया में मसरूफ़ प्रेमचंद की एक ऐसी छवि गढ़ी है जो
'देवोपम' नहीं है , न ही वह उनकी
'कहानी सम्राट'
और 'उपन्यास सम्राट' की छवि को ग्लैमराइज करती है बल्कि यह तो एक ऐसा
'पति-पत्नी संवाद' है जहां दोनो बराबरी के स्तर पर सवालों से टकराते हैं और
उनके जवाब तलाशने की कोशिश मे लगे रहते हैं.
यह पुस्तक इसलिये भी / ही महत्वपूर्ण है कि
स्त्री
के प्रति एक महान लेखक के किताबी नजरिए को नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी के
'फ़लसफ़े' को बहुत ही बारीक ,महीन और विष्लेषणात्मक तरीके से पेश करती है. स्त्री विमर्श के इतिहास और आइने में झांकने के लिये यह एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ है.
इसमे
एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक
मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है- 'कलम का मजदूर'
प्रेमचंदजी
जैसे उच्च कोटि के कलाकार के गृह-जीवन की झांकियां देखने के लिए पाठकों की
इच्छा होना सर्वथा स्वाभाविक है और निसन्देह हिन्दी जगत के लिए यह बड़े
गौरव की बात है कि श्रीमती शिवरानी देवी ने इन झांकियों को बड़ी स्पष्टता,
सहृदयता और ईमानदारी के साथ दिखलाया
एक बात इस ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय से बिल्कुल साफ़-साफ़ ज़ाहिर हो जाती है,
वह
यह कि श्रीमती शिवरानीजी का अपना अलग व्यक्तित्व है। उनमें विचार करने का
और उन विचारों को प्रगट करने का साहस पहले ही मौजूद रहा है। इस पुस्तक में
यद्यपि जगह-जगह पर उनकी पति-भक्ति के उदाहरण विद्यमान हैं, तथापि
प्रेमचंदजी से मतभेद होने की भी कई मिसालें उन्होंने दी हैं और उनके कारण
स्वयं उनका और पुस्तक का गौरव बहुत बढ़ गया है।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश:
मैं गाती थी, वह रोते थे / शिवरानी देवी
बंबई
में एक रात बुखार चढ़ा तो दूसरे दिन भी पांच बजे तक बुखार नहीं उतरा. मैं
उनके पास बैठी थी. मैंने भी रात को अकेले होने की वजह से खाना नहीं खाया
था. कोई छ: बजे के करीब उनका बुखार उतरा.
आप बोले- क्या तुमने भी अभी तक खाना नहीं खाया?
मैं बोली- खाना तो कल शाम से पका ही नहीं.
आप
बोले- अच्छा मेरे लिए थोड़ा दूध गरम करो और थोड़ा हलवा बनाओ. मैं हलवा और
दूध तैयार करके लाई. दूध तो खुद पी लिया और बोले- यह हलवा तुम खाओ. जब हम
दोनो आदमी खा चुके , मैं पास में बैठी.
आप बोले- कुछ पढ़
करके सुनाओ, वह गाने की किताब उठा लो. मैंने गाने की किताब उठाई. उसमें
लड़कियों की शादी का गाना था. मैं गाती थी, वह रोते थे. उसके बाद मैं तो
देखती नहीं थी, पढ़ने में लगी थी, आप मुझसे बोले- बंद कर दो, बड़ा दर्दनाक
गाना है. लड़कियों का जीवन भी क्या है. कहां बेचारी पैदा हों, और कहां
जायेंगी, जहां अपना कोई नहीं है. देखो, यह गाने उन औरतों ने बनाए हैं जो
बिल्कुल ही पढ़ी-लिखी ना थीं. आजकल कोई एक कविता लिखता है या कवि लोगों का
कवि सम्मेलन होता है, तो जैसे मालूम होता है कि जमीन-आसमान एक कर देना
चाहते हैं. इन गाने के बनानेवालियों का नाम भी नहीं है.
मैंने पूछा- यह बनानेवाले थे या बनानेवालियां थीं?
आप
बोले- नहीं, पुरुष इतना भावुक नहीं हो सकता कि स्त्रियों के अंदर के दर्द
को महसूस कर सके. यह तो स्त्रियों ही के बनाए हुए हैं.स्त्रियों का दर्द
स्त्रियां ही जान सकती हैं, और उन्हीं के बनाए यह गाने हैं.
मैं बोली- इन गानों को पढ़ते समय मैं तो ना रोई और आप क्यों रो पड़े?
आप
बोले- तुम इसको सरसरी निगाह से पढ़ रही हो, उसके अंदर तक तुमने समझने की
कोशिश नहीं की. मेरा खयाल है कि तुमने मेरी बीमारी की वजह से दिलेर बनने
कोशिश की है.
फाइल का आकार बड़ा होने की वजह से इसे तीन भागों में बांटा गया है ताकि आप इसे आसानी से डाउनलोड कर सकें।
भाग 1 डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
भाग 2 डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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आप सभी के लिए पेश है एक दुर्लभ पुस्तक
- 'प्रेमचंद घर में' । इसे प्रेमचंद की पत्नी
शिवरानी देवी ने लिखा है।
ये पुस्तक आकर में काफी बड़ी होने के कारण 3 भागों में प्रस्तुत की जा रही है। जिससे आपको डाउनलोड करने में आसानी हो।
'प्रेमचंद घर में' अपने आप मे एक अनूठी पुस्तक है. इसमे एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है-
'कलम का मजदूर'.
शिवरानी
जी ने बेहद छोटे-छोटे डिटेल्स के माध्यम घर-परिवार , नातेदारी-रिश्तेदारी,
लेखन -प्रकाशन की दुनिया में मसरूफ़ प्रेमचंद की एक ऐसी छवि गढ़ी है जो
'देवोपम' नहीं है , न ही वह उनकी
'कहानी सम्राट'
और 'उपन्यास सम्राट' की छवि को ग्लैमराइज करती है बल्कि यह तो एक ऐसा
'पति-पत्नी संवाद' है जहां दोनो बराबरी के स्तर पर सवालों से टकराते हैं और
उनके जवाब तलाशने की कोशिश मे लगे रहते हैं.
यह पुस्तक इसलिये भी / ही महत्वपूर्ण है कि
स्त्री
के प्रति एक महान लेखक के किताबी नजरिए को नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी के
'फ़लसफ़े' को बहुत ही बारीक ,महीन और विष्लेषणात्मक तरीके से पेश करती है. स्त्री विमर्श के इतिहास और आइने में झांकने के लिये यह एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ है.
इसमे
एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक
मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है- 'कलम का मजदूर'
प्रेमचंदजी
जैसे उच्च कोटि के कलाकार के गृह-जीवन की झांकियां देखने के लिए पाठकों की
इच्छा होना सर्वथा स्वाभाविक है और निसन्देह हिन्दी जगत के लिए यह बड़े
गौरव की बात है कि श्रीमती शिवरानी देवी ने इन झांकियों को बड़ी स्पष्टता,
सहृदयता और ईमानदारी के साथ दिखलाया
एक बात इस ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय से बिल्कुल साफ़-साफ़ ज़ाहिर हो जाती है,
वह
यह कि श्रीमती शिवरानीजी का अपना अलग व्यक्तित्व है। उनमें विचार करने का
और उन विचारों को प्रगट करने का साहस पहले ही मौजूद रहा है। इस पुस्तक में
यद्यपि जगह-जगह पर उनकी पति-भक्ति के उदाहरण विद्यमान हैं, तथापि
प्रेमचंदजी से मतभेद होने की भी कई मिसालें उन्होंने दी हैं और उनके कारण
स्वयं उनका और पुस्तक का गौरव बहुत बढ़ गया है।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश:
मैं गाती थी, वह रोते थे / शिवरानी देवी
बंबई
में एक रात बुखार चढ़ा तो दूसरे दिन भी पांच बजे तक बुखार नहीं उतरा. मैं
उनके पास बैठी थी. मैंने भी रात को अकेले होने की वजह से खाना नहीं खाया
था. कोई छ: बजे के करीब उनका बुखार उतरा.
आप बोले- क्या तुमने भी अभी तक खाना नहीं खाया?
मैं बोली- खाना तो कल शाम से पका ही नहीं.
आप
बोले- अच्छा मेरे लिए थोड़ा दूध गरम करो और थोड़ा हलवा बनाओ. मैं हलवा और
दूध तैयार करके लाई. दूध तो खुद पी लिया और बोले- यह हलवा तुम खाओ. जब हम
दोनो आदमी खा चुके , मैं पास में बैठी.
आप बोले- कुछ पढ़
करके सुनाओ, वह गाने की किताब उठा लो. मैंने गाने की किताब उठाई. उसमें
लड़कियों की शादी का गाना था. मैं गाती थी, वह रोते थे. उसके बाद मैं तो
देखती नहीं थी, पढ़ने में लगी थी, आप मुझसे बोले- बंद कर दो, बड़ा दर्दनाक
गाना है. लड़कियों का जीवन भी क्या है. कहां बेचारी पैदा हों, और कहां
जायेंगी, जहां अपना कोई नहीं है. देखो, यह गाने उन औरतों ने बनाए हैं जो
बिल्कुल ही पढ़ी-लिखी ना थीं. आजकल कोई एक कविता लिखता है या कवि लोगों का
कवि सम्मेलन होता है, तो जैसे मालूम होता है कि जमीन-आसमान एक कर देना
चाहते हैं. इन गाने के बनानेवालियों का नाम भी नहीं है.
मैंने पूछा- यह बनानेवाले थे या बनानेवालियां थीं?
आप
बोले- नहीं, पुरुष इतना भावुक नहीं हो सकता कि स्त्रियों के अंदर के दर्द
को महसूस कर सके. यह तो स्त्रियों ही के बनाए हुए हैं.स्त्रियों का दर्द
स्त्रियां ही जान सकती हैं, और उन्हीं के बनाए यह गाने हैं.
मैं बोली- इन गानों को पढ़ते समय मैं तो ना रोई और आप क्यों रो पड़े?
आप
बोले- तुम इसको सरसरी निगाह से पढ़ रही हो, उसके अंदर तक तुमने समझने की
कोशिश नहीं की. मेरा खयाल है कि तुमने मेरी बीमारी की वजह से दिलेर बनने
कोशिश की है.
फाइल का आकार बड़ा होने की वजह से इसे तीन भागों में बांटा गया है ताकि आप इसे आसानी से डाउनलोड कर सकें।
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- 'प्रेमचंद घर में' । इसे प्रेमचंद की पत्नी
शिवरानी देवी ने लिखा है।
ये पुस्तक आकर में काफी बड़ी होने के कारण 3 भागों में प्रस्तुत की जा रही है। जिससे आपको डाउनलोड करने में आसानी हो।
'प्रेमचंद घर में' अपने आप मे एक अनूठी पुस्तक है. इसमे एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है-
'कलम का मजदूर'.
शिवरानी जी ने बेहद छोटे-छोटे डिटेल्स के माध्यम घर-परिवार , नातेदारी-रिश्तेदारी, लेखन -प्रकाशन की दुनिया में मसरूफ़ प्रेमचंद की एक ऐसी छवि गढ़ी है जो
'देवोपम' नहीं है , न ही वह उनकी
'कहानी सम्राट' और 'उपन्यास सम्राट' की छवि को ग्लैमराइज करती है बल्कि यह तो एक ऐसा 'पति-पत्नी संवाद' है जहां दोनो बराबरी के स्तर पर सवालों से टकराते हैं और उनके जवाब तलाशने की कोशिश मे लगे रहते हैं.
यह पुस्तक इसलिये भी / ही महत्वपूर्ण है कि
स्त्री के प्रति एक महान लेखक के किताबी नजरिए को नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी के 'फ़लसफ़े' को बहुत ही बारीक ,महीन और विष्लेषणात्मक तरीके से पेश करती है. स्त्री विमर्श के इतिहास और आइने में झांकने के लिये यह एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ है.
इसमे एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है- 'कलम का मजदूर'
प्रेमचंदजी जैसे उच्च कोटि के कलाकार के गृह-जीवन की झांकियां देखने के लिए पाठकों की इच्छा होना सर्वथा स्वाभाविक है और निसन्देह हिन्दी जगत के लिए यह बड़े गौरव की बात है कि श्रीमती शिवरानी देवी ने इन झांकियों को बड़ी स्पष्टता, सहृदयता और ईमानदारी के साथ दिखलाया
एक बात इस ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय से बिल्कुल साफ़-साफ़ ज़ाहिर हो जाती है,
वह यह कि श्रीमती शिवरानीजी का अपना अलग व्यक्तित्व है। उनमें विचार करने का और उन विचारों को प्रगट करने का साहस पहले ही मौजूद रहा है। इस पुस्तक में यद्यपि जगह-जगह पर उनकी पति-भक्ति के उदाहरण विद्यमान हैं, तथापि प्रेमचंदजी से मतभेद होने की भी कई मिसालें उन्होंने दी हैं और उनके कारण स्वयं उनका और पुस्तक का गौरव बहुत बढ़ गया है।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश:
मैं गाती थी, वह रोते थे / शिवरानी देवी
बंबई में एक रात बुखार चढ़ा तो दूसरे दिन भी पांच बजे तक बुखार नहीं उतरा. मैं उनके पास बैठी थी. मैंने भी रात को अकेले होने की वजह से खाना नहीं खाया था. कोई छ: बजे के करीब उनका बुखार उतरा.
आप बोले- क्या तुमने भी अभी तक खाना नहीं खाया?
मैं बोली- खाना तो कल शाम से पका ही नहीं.
आप बोले- अच्छा मेरे लिए थोड़ा दूध गरम करो और थोड़ा हलवा बनाओ. मैं हलवा और दूध तैयार करके लाई. दूध तो खुद पी लिया और बोले- यह हलवा तुम खाओ. जब हम दोनो आदमी खा चुके , मैं पास में बैठी.
आप बोले- कुछ पढ़ करके सुनाओ, वह गाने की किताब उठा लो. मैंने गाने की किताब उठाई. उसमें लड़कियों की शादी का गाना था. मैं गाती थी, वह रोते थे. उसके बाद मैं तो देखती नहीं थी, पढ़ने में लगी थी, आप मुझसे बोले- बंद कर दो, बड़ा दर्दनाक गाना है. लड़कियों का जीवन भी क्या है. कहां बेचारी पैदा हों, और कहां जायेंगी, जहां अपना कोई नहीं है. देखो, यह गाने उन औरतों ने बनाए हैं जो बिल्कुल ही पढ़ी-लिखी ना थीं. आजकल कोई एक कविता लिखता है या कवि लोगों का कवि सम्मेलन होता है, तो जैसे मालूम होता है कि जमीन-आसमान एक कर देना चाहते हैं. इन गाने के बनानेवालियों का नाम भी नहीं है.
मैंने पूछा- यह बनानेवाले थे या बनानेवालियां थीं?
आप बोले- नहीं, पुरुष इतना भावुक नहीं हो सकता कि स्त्रियों के अंदर के दर्द को महसूस कर सके. यह तो स्त्रियों ही के बनाए हुए हैं.स्त्रियों का दर्द स्त्रियां ही जान सकती हैं, और उन्हीं के बनाए यह गाने हैं.
मैं बोली- इन गानों को पढ़ते समय मैं तो ना रोई और आप क्यों रो पड़े?
आप बोले- तुम इसको सरसरी निगाह से पढ़ रही हो, उसके अंदर तक तुमने समझने की कोशिश नहीं की. मेरा खयाल है कि तुमने मेरी बीमारी की वजह से दिलेर बनने कोशिश की है.
फाइल का आकार बड़ा होने की वजह से इसे तीन भागों में बांटा गया है ताकि आप इसे आसानी से डाउनलोड कर सकें।
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रसखान एक कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
रसखान को रस की खान कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।
रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निगुर्ण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रध्दावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा -
बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा में इनकी समाधि है।
'प्रेमवाटिका' में यह स्वयं लिखते हैं -
तोरि मानिनी तें हियो, फोरि मोहिनी गान।
प्रेमदेव की छबिहिं लखि, भय मियां रसखान।।
इनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं - 'सुजान रसखान' और
'प्रेमवाटिका'। 'सुजान रसखान' में 139 सवैये और कवित्त है। 'प्रेमवाटिका'
में 52 दोहे हैं, जिनमें प्रेम का बड़ा अनूठा निरूपण किया गया है।
रसखानि
के सरस सवैय सचमुच बेजोड़ हैं। सवैया का दूसरा नाम 'रसखानि' भी पड़ गया है।
शुद्ध व्रजभाषा में रसखानि ने प्रेमभक्ति की अत्यंत सुंदर प्रसादमयी रचनाएँ की हैं। यह एक उच्च कोटि के भक्त कवि थे, इसमें संदेह नहीं।
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'मेरे सपनो का भारत' महात्मा गाँधी की एक चर्चित पुस्तक है।
महात्मा गाँधी बीसवीं सदी के सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं; जिनकी अप्रत्यक्ष उपस्थिति उनकी मृत्यु के साठ वर्ष बाद भी पूरे देश पर देखी जा सकती है। उन्होंने भारत की कल्पना की और उसके लिए कठिन संघर्ष किया।
स्वाधीनता से उनका अर्थ केवल ब्रिटिश राज से मुक्ति का नहीं था बल्कि वह गरीबी, निरक्षरता और अस्पृश्यता जैसी बुराइयों से मुक्ति का सपना देखते थे। वह चाहते थे कि देश के सारे नागरिक समान रूप से आज़ादी और समृद्धि का सुख पा सकें।
उनके बहुत-से परिवर्तनकारी विचार, जिन्हें उस समय, असंभव कह परे कर दिया गया था, आज न केवल स्वीकार किये जा रहे हैं बल्कि अपनाए भी जा रहे हैं। आज की पीढ़ी के सामने यह स्पष्ट हो रहा है कि गाँधीजी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उस समय थे।
यह तथ्य है कि गाँधीगीरी आज के समय का मंत्र बन गया है। यह सिद्ध करता है कि गाँधीजी के विचार इक्कीसवीं सदी के लिए भी सार्थक और उपयोगी हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरे सपनों का भारत
भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षायें रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिये, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।
भारत दुनिया के उन इने-गिने देशों में से है, जिन्होंने अपनी अधिकांश पुरानी संस्थाओं को, कायम रखा है। साथ ही वह अभी तक अन्ध-विश्वास और भूल-भ्रान्तियों की इस काई को दूर करने की और इस तरह अपना शुद्ध रूप प्रकट करने की अपनी सहज क्षमता भी प्रकट करता है। उसके लाखों करोड़ों निवासियों के सामने जो आर्थिक कठिनाइयाँ खड़ी हैं, उन्हें सुलझा सकने की उनकी योग्यता में मेरा विश्वास इतना उज्जवल कभी नहीं रहा जितना आज है।
मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है। भारत में ऐसी योग्यता है कि वह धर्म के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ा हो सकता है। भारत ने आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया है, उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। भारत को फौलाद के हथियारों की उतनी आवश्यकता नहीं है; वह हथियारों से लड़ा है और आज भी वह उन्हीं हथियारों से लड़ सकता है। दूसरे देश पशुबल के पुजारी रहे हैं। यूरोप में अभी जो भयंकर युद्ध रहा है, वह इस सत्य का एक प्रभावशाली उदाहरण है। भारत अपने आत्मबल से सबको जीत सकता है। इतिहास इस सच्चाई को चाहे जितने प्रमाण दे सकता है कि पशुबल आत्मबल की तुलना में कुछ नहीं है। कवियों ने इस बल की विजय के गीत गाये हैं और ऋषिओं ने इस विषय में अपने अनुभवों का वर्णन करके उसकी पुष्टि की है।
अवश्य पढ़ें।
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एक लोककथा तो आपने सुनी ही होगी। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’। प्रस्तुत पुस्तक इसी लोककथा पर आधारित है।
तीखा व्यंग्य इस नाटक की विशेषता है। सता की विवेकहीनता पर कटाक्ष किया गया है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस
पुस्तक के रचयिता हैं। उनका यह नाटक कालजयी रचना है। जब इसकी रचना हुई थी
तबसे आज तक परिस्थितियां तो काफ़ी बदली हैं, पर समय के बदलने के साथ इसका
अर्थ नये रूप में हमारे सामने आता है। अंधेर नगरी तो हर काल में मौज़ूद रहा
है। हर स्थान पर।
१८८१
में रचित इस नाटक में भारतेन्दु ने व्यंग्यात्मक शैली अपनाया है। इस
प्रहसन में देश की बदलती परिस्थिति, चरित्र, मूल्यहीनता और व्यवस्था के
खोखलेपन को बड़े रोचक ढ़ंग से उभारा गया है।
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