
अमृता जी के उपन्यास तथा कहानियां भी जैसे कविता की तरह
हैं। अपनी कहनियों और उपन्यासों में अमृता जी ने बहुत से सामाजिक मुद्दे
बड़ी शिद्दत के साथ उठाये हैं।
'आक के पत्ते' इनका एक चर्चित उपन्यास है.
अमृता प्रीतम (१९१९-२००५)पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा रसीदी टिकट भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।
चर्चित कृतियाँ :
उपन्यास- पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत, कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां आत्मकथा-रसीदी टिकट
कहानी संग्रह- कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में
संस्मरण- कच्चा आंगन, एक थी सारा
उपन्यास के कुछ अंश:
उर्मी का कहीं नाम निशान नहीं, जैसे उर्मी कभी थी ही नहीं। मैं उर्मी की बात करूं तो उसके लगे लिपटे मुझे ऐसे देखते हैं जैसे मैं जिन्न भूतों की बात कर रहा हूं। और जैसे उर्मी को सिर्फ मैंने ही कभी देखा हो, और किसी ने कभी आंखों से देखा ही ना हो।
सब गवाहियां खत्म हो गयी हैं, सिर्फ एक गवाही यहां गांव के स्कूल के कागजों में पड़ी हुई है, जहां उर्मी को दाखिल करते वक्त लिखा गया था- उर्मी , उम्र छः साल, पिता का नाम हरीशचन्द्र।
एक दिन पूछता हूं "पिताजी, राजा हरीशचन्द्र सत्यवादी था। आप चाहे फिर कभी सच ना बोलना, पर एक बार सच बता दो - उर्मी कहां है?"
पिताजी खटिया की अदवायन को इतने जोर से खींचते हैं कि अदवायन टूट जाती है।
मां मूढ़े पर एक गठरी की तरह बैठी हुई है। गांव का हकीम उसकी रीढ़ की हड्डी पर रोज लेप करता है, और कहता है कि उसे कभी ढीली खाट पर ना सुलाना।
इसलिये पिता जी रोज उसकी खाट कसते हैं.....
पिताजी खटिया की अदवायन को गांठ लगाने लगते हैं, तो मूढ़े पर पड़ी हुई गठरी धीरे से रोने लगती है, "हाय री बेटी, कौन टूटी को जोड़े...."
गठरी ही कहूंगा....मां होती तो जोर जोर से विलाप ना करती.......
सोचता हूं - उर्मी अगर एक सुंदर सजीली लड़की ना होती, किसी खाट की खुरदरी अदवायन होती तो उसकी उम्र को गांठ लग जाती.....
फिर कमरे का आला मेरी तरफ देखता है और मैं कमरे के आले की तरफ। उसकी भी छाती में किसी ने ऐसे बुटका भरा है, जैसे मेरी छाती में। वहां - आले में एक तस्वीर थी, मेरी और उर्मी की। एक बार पिताजी, हम दोनों की अंगुली पकड़ कर एक मेले पर ले गये थे। उर्मी तब कोई सात बरस की थी, और मैं पांच बरस का। और वहां मेले में हम दोनों बहन भाई की तस्वीर उतरवायी ती। पर आज वह तस्वीर वहां पर नहीं रही। मैं और यह आला, दोनों मिल कर पूछते हैं, "पिताजी, वह तस्वीर कहां चली गयी?"
"तुझे क्या करनी है तस्वीर?" पिताजी गुस्से में अदवायन को इस तरह खींचते हैं, मुझे लगता है कि अदवायन फिर टूट जायेगी।
कहता हूं,"उसकी एक ही तो निशानी थी!"
पिताजी खीज कर बोलते हैं, "निशानी अब सिर से मारनी है?"
मैं ढीठों की तरह कहता हूं, " आपको नहीं जरूरत थी, तो ना रखते, मुझे दे देते, मैं शहर वाले कमरे में लगा लेता।"
"डूब जाये तेरा शहर..." पिता का सारा बदन खुरदरी अदवायन की तरह कस जाता है। और शायद अनके अपने बदन की छिलतरें उनके हांथों में चुभ आती हैं, वह हाथों को मलते से मेरी तरफ देखते हैं।
जानता हूं - मैं शहर में कमरा ले कर जब कॉलेज में पढ़ने लगा था तो , उर्मी ने अपने पिहरियों और ससुरालियों के आगे हाथ जोड़े थे कि उसका आदमी अगर कुछ बरसों के लिये कीनिया कमाने चला गया था , तो वह गांव में पड़ी क्या करेगी, उसे शहर जा कर आगे पढ़े लेने दें। और वह शहर जाकर आगे पढ़ने के लिये कॉलेज में दाखिल हो गयी थी। हम बहन भाई दोनों शहर में कमरा ले कर रहते थे....
निशानी से याद आता है कि उर्मी अगर जिंदा होती....सिर्फ तीन चार महीने और जिंदा रहती - तो उसका बच्चा भी एक निशानी होता......
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4 टिप्पणियां:
आपका काम बहुत महत्वपूर्ण है। तदर्थ बधाई स्वीकार करें। डाउनलोड लिंक में आप Media Fire को भी सम्मिलित कर लें तो आपके पाठकों हेतु डाउनलोडिंग अत्यन्त आसानी भरा काम हो जायेगा। विश्वास है मेरे इस सुझाव पर आप ध्यान अवश्य देंगे।
धन्यवाद . साहित्य में छुपे अनमोल हीरे हम तक पहुँचाने के लिए.
हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर को उनके चाहने वालो तक इतनी सहजता से पहुंचाने के लिए आपका यह प्रयास अनुकरणीय और काबिल-ऐ-तारीफ़ हे !
जो लिंक आप ने दिए है वो कोई भी काम नही कर रहे है। सोलुशन करे
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