
'गीता-माता' महात्मा गाँधी की एक प्रसिद्ध पुस्तक है।
गांधी जी के अनुसार मानव जीवन ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय है और गीता इनसे संबंधित सभी समस्याओं का समाधान है। स्वाध्याय पूर्वक गीता का किया गया अध्ययन जीवन के गूढ़ रहस्य को उजागर करता है। गांधी जी ने गीता को शास्त्रों का दोहन माना। उन्होंने ‘गीता माता’ में श्लोकों की शब्दों के सरल अर्थ देते हुए टीका की है। गांधी जी का विश्वास था कि जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसे कभी निराशा नहीं घेरती, वह हमेशा आनंद में रहता है।
जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसे कभी निराशा नहीं घेरती, वह हमेशा आनंद में रहता है । भारत की धरती ने एक ऐसा महान मानव पैदा किया जिसने न केवल भारत की राजनीति का नक्शा बदल दिया अपितु विश्व को सत्य अहिंसा, शांति और प्रेम की उस अजेय शक्ति के दर्शन कराए जिसके लिए ईसा या गौतम बुद्ध का स्मरण किया जाता है। गाँधी जी का धर्म समूची मानव-जाती के लिए कल्याणकारी था। उन्होंने स्वयं को दरिद्र नारायण का प्रतिनिधि माना। गांधी जी का विश्वास था कि भारत का उत्थान गाँवों की उन्नति से ही होगा। उनके लिए सत्य से बढ़कर कोई धर्म और अहिंसा से बढ़कर कोई कर्त्तव्य नहीं था।
पुस्तक के कुछ अंश
गीता शास्त्रों का दोहन है। मैंने कहीं पढ़ा था कि सारे उपनिषदों का निचोड़ उसके सात सौ श्लोंकों में आ जाता है। इसलिए मैने निश्चय किया कि कुछ न हो सके तो भी गीता का ज्ञान प्राप्त कर लें। आज गीता मेरे लिए केवल बाइबिल नहीं है, केवल कुरान नहीं है, मेरे लिए वह माता हो गई है। मुझे जन्म देनेवाली माता तो चली गई, पर संकट के समय गीता-माता के पास जाना मैं सीख गया हूँ। मैने देखा है, जो कोई इस माता की शरण जाता है, उसे ज्ञानामृत से वह तृप्त करती है।
पांडवों और कौरवों के अपनी सेनासहित युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र में एकत्र होने पर दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर दोनों दलों के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के बारे में चर्चा करता है। युद्ध की तैयारी होने पर दोनों ओर से शंख बजते हैं और अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण भगवान् उसका रथ दोनों सेनाओं के बीच में लाकर खड़ा करते हैं। अर्जुन घबराता है और श्रीकृष्ण से कहता है कि मै इन लोगों से कैसे लड़ूँ ? दूसरे हों तो मैं तुरंत भिड़ सकता हूँ लेकिन ये तो अपने स्वजन ठहरे। सब चचेरे भाई-बंधु हैं। हम एक साथ पले हैं। कौरव और पांडव कोई दो नहीं हैं। द्रोण केवल कौरवों के ही, आचार्य नहीं है, हमें भी उन्होंने सब विद्याएँ सिखाई हैं। भीष्म तो हम सभी के पुरखा हैं। उनके साथ लड़ाई कैसी ? माना कि कौरव आततायी हैं, उन्होंने बहुत दुष्ट कर्म किए हैं, अन्याय किए हैं, पांडवों की जगह-जायदाद छीन ली है, द्रौपदी जैसी महासती का अपमान किया है। यह सब उनके दोष अवश्य हैं, पर मैं उन्हें मारकर कहाँ रहूँगा ? ये तो मूढ़ है, मै इन जैसा कैसे बनूँ ? मुझे तो कुछ समझ हैं, सारासार का विवेक है। मुझे यह जानना चाहिए कि अपनों के साथ लड़ने में पाप है। चाहे उन्होंने हमारा हिस्सा हज़म कर लिया हो, चाहे वे मार ही डालें, तब भी हम उनपर हाथ कैसे उठावें ? हे कृष्ण ? मैं तो इन सगे-संबंधियों से नहीं लडूँगा।
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1 टिप्पणियां:
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