
संत दया बाई, संत चरणदास की शिष्या थीं। दो बहनें थीं- सहजो बाई और दया बाई। दोनों चरणदास को गुरु मानती थीं। इनके बारे में केवल इतना पता चलता है कि ये मेवात (राजस्थान) की रहने वाली थीं और जाति की वैश्य थीं। लेकिन संत साहित्य में इन दोनों बहनों का योगदान बड़े आदर से स्वीकार किया गया है।
दया बाई की भक्ति में वैराग्य की प्रधानता थी। उनका कहना था कि वैराग्य को ही अपना सर्वस्व समर्पण करके, हम प्रभु की निकटता पा सकते हैं। वह दीनभाव से वैराग्य के माध्यम से, प्रभु से प्रार्थना करती हैं:
पैरत थाको हे प्रभू सूझत वार न पार। मिहर मौज जब ही करो, तब पाऊं दरबार।।
निरपच्छी के पच्छ तुम, निराधार के धार।
मेरे तुम ही नाथ इक जीवन प्रान अधार।।
दया बाई ने संत चरणदास को अपना गुरु माना था।
वह कहती हैं :
चरणदास गुरुदेव जू ब्रह्म रूप सुख धाम।
ताप हरन सब सुख करन, ‘दया’ करत परनाम।।
संत चरणदास ने अपनी भक्ति में प्रेम को बहुत महत्व दिया। यही कारण था कि दया और सहजो की भक्ति का आधार प्रेम तो था, किन्तु दोनों के मार्ग अलग थे। सहजो ने प्रेमविह्वल प्रभु-स्मरण को स्वीकार किया तो दया ने सर्वस्व समर्पण वैराग्य को। दया ने कहा कि पाप कर्म मत करो, क्योंकि वह ईश्वर से छिपा नहीं रहता। संयम, साधना, तीरथ, व्रत, दान आदि में कुछ नहीं रखा। मां के भरोसे जिस तरह बालक रहता है, वैसे ही प्रभु को समर्पित करो और उसी के भरोसे से रहो।
दया बाई ने कहा- हे प्रभु, मैं तुम्हारे सिवा किसी को नहीं जानती। यह सिर तुम्हारे ही सामने झुकता है। तुम से ही दीन होकर भिक्षा मांगती हूं, तुमसे ही झगड़ा करती हूं। तुम्हारे चरणों की ही तो आश्रित हूं :
सीस नवै तो तुमहिं कूं तुमहीं सूं भाखूं दीन। जो झगरूं तो तुमहिं सूं, तुम चरनन आधीन।।
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1 टिप्पणियां:
आभार इस प्रस्तुति का।
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