
आज किताबघर में पेश है : धरमवीर भारती की अमर कृति - कनुप्रिया । ये अपने आप में एक संपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक का अंश किताबघर पर पहले ही प्रकाशित किया जा चूका है ।
लेखक के पिछले दृश्यकाव्य में एक बिन्दु से इस समस्या पर दृष्टिपात किया जा चुका है-गान्धारी, युयुत्सु और अश्वत्थामा के माध्यम से। कनुप्रिया उनसे सर्वथा पृथक-बिलकुल दूसरे बिन्दु से चल कर उसी समस्या तक पहुँचती है, उसी प्रक्रिया को दूसरे भावस्तर से देखती है और अपने अनजान में एक झलक एक झलक एक ४ करती है जो पूरक सिद्ध होते हैं। पर यह सब उस के अनजान में में होता है क्योंकि उस की मूलवृत्ति संशय या जिज्ञासा नहीं, भावाकुल तन्मयता है।
कनुप्रिया की सारी प्रतिक्रियाएँ उसी तन्मयता की विभिन्न स्थितियाँ हैं।
एक झलक:
ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
चुपके से सो गयी हूँ
कि कब मधुमास आये और तुम कब मेरे
प्रस्फुटन से छा जाओ !
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