
किताबघर में आज पेश है प्रेमचंद का महान उपन्यास - कर्मभूमि
कर्मभूमि उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आस-पास के गाँवों से संबंधित है। आन्दोलन दोनों ही जगह होता है और दोनों का उद्देश्य क्रान्ति है। किन्तु यह क्रान्ति गाँधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित है। गाँधीजी का कहना था कि जेलों को इतना भर देना चाहिए कि उनमें जगह न रहे और इस प्रकार शक्ति और अहिंसा से अंग्रेज सरकार पराजित हो जाए।
ये उपन्यास भी हमें श्री अजीत प्रताप सिंह ने भेजा है। अजीत जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद्।
उपन्यास के कुछ अंश:
हमारे स्कूलों कालेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगज़ारी भी उतनी सख़्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फ़ीस का दाख़िला होना अनिवार्य है। या तो फ़ीस दीजिए, या नाम कटवाइए, या ज़ब तक फ़ीस न दाख़िल हो, रोज़ कुछ ज़ुर्माना दीजिए। कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फ़ीस दोगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख़ को दुगुनी फ़ीस न दी तो नाम कट जाता है। काशी के क्वींस कालेज में यही नियम था। सातवीं तारीख़ को फ़ीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख़ को दुगुनी फ़ीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि ग़रीब के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जायँ। वही हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रिआयत नहीं करता।
चाहे जहाँ से लाओ, कर्ज़ लो, गहने गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फ़ीस ज़रूर दो, नहीं तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। ज़मीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नमीं को घुसने नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरी में पैसे का राज, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। देर में आइए तो जुर्माना; न आइए तो जुर्माना; सबक़ न याद हो तो जुर्माना; किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना; कोई अपराध हो तो जुर्माना; शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिम शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए ग़रीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा को बेच देने वाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है ?...........
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