
दुर्गेश-नंदिनी बंकिम चंद्र का एक रोमांटिक उपन्यास है। यह उनकी पहली प्रकाशित रचना भी मानी जाती है।
यह उपन्यास काफी प्रसिद्ध हुआ था।
प्रस्तुत है इस उपन्यास के कुछ अंश :
बंगला सन् 997 की गर्मी के अन्त में एक दिन एक घुड़सवार पुरुष विष्णुपुर से मान्दारण की राह में अकेले जा रहा था। सूर्य को अस्ताचलगामी देख सवार ने तीव्रता से घोड़ा बढ़ाया, क्योंकि सामने ही बहुत बड़ा मैदान था न जाने कब सन्ध्या समय प्रबल आँधी पानी आरम्भ हो तो उस मैदान में निराश्रय को बहुत कुछ कष्ट हो सकता था। मैदान पार करते-करते सूर्यास्त हो गया; धीरे-धीरे सान्ध्य आकाश में नील नीरदमाला घिरने लगी। शाम ही से ऐसी गहरी अँधियारी छा गई कि घोड़े को आगे बढ़ाना कठिन हो गया। यात्री केवल बिजली की चमक पर किसी तरह राह चलने लगा।
थोड़ी ही देर में हाहाकार करती हुई आँधी चली और साथ ही साथ प्रबल वृष्टि भी होने लगी। घुड़सवार को अपनी राह चलने में कुछ भी स्थिरता न मिली। घोड़े की लगाम ढीली करके वह आप ही आप चलने लगा। इसी प्रकार कुछ दूर चलने पर सहसा घोड़े के पैर में किसी कड़ी वस्तु की ठोकर लगी। उसी समय एक बार बिजली चमकने पर सवार ने चकित होकर देखा कि सामने ही कोई बहुत बड़ी श्वेत वस्तु पड़ी है। उस श्वेत ढेक को कोई झोपड़ी समझसवार उछलकर जमीन पर उतर पड़ा। उतरते ही सवार ने देखाकि पत्थर की बनी सीढ़ियों से घोड़े को ठोकर लगी है, इसलिए पास ही कोई आश्रय स्थान समझकर उसने घोड़े को छोड़ दिया; स्वयं अन्धकार की वजह से सावधानी से सीढ़ियाँ तय करने लगा।
बिजली की चमक से मालूम हुआ कि सामने ही कोई अट्टालिका और एक देव मन्दिर है। कौशल से मन्दिर के छोटे द्वार पर पहुँचकर उसने देखा कि द्वार बन्द है; हाथ फेरने से जान पड़ा किद्वार बाहर की ओर से बन्द नहीं है। एक सुनसान मैदान में बने मन्दिर में इस समय किसने भीतर से द्वार बन्द कर लिया है, इस चिन्ता से यात्री कुछ विस्मित और कौतूहलाविष्ट हुआ। सिर पर प्रबल वेग से पानी पड़ रया था; इसलिए देवालय में कोई है, यह समझकर पथिक बार-बार द्वार खटखटाने लगा, किन्तु कोई भी दरवाजा खोलने न आया। इच्छा हुई कि लात मारकर दरवाजा खोल लें; किन्तु देवालय का अपमान होने की वजह से पथिक ने वैसा नहीं किया।
फिर भी वह द्वार पर जितनी जोर से हाथ पटक रहा था, उसे लकड़ी का द्वार अधिक देर तक बर्दाश्त न कर सका शीघ्र ही बाधा दूर हुई। द्वार खुल जाने पर युवक ने जैसे ही मन्दिर में प्रवेश किया; वैसे ही मन्दिर के भीतर से धीमी चीख की ध्वनि उसके कानों में सुनाई दी, और उस समय खुले मन्दिर की राह से तेज हवा आने से वहाँ जो टिमटिमाता चिराग जल रहा था, वह भी बुझ गया। युवक को कुछ भी दिखाई न दिया कि मन्दिर में कौन मनुष्य है, या देवमूर्ति ही कैसी है। अपनी ऐसी हालत देख निर्भीक युवक ने सिर्फ थोड़ा मुस्कराकर पहले भक्ति के आवेश में मन्दिर की अदृश्य मूर्ति की ओर प्रणाम किया, फिर उठकर अन्धकार में आवाज दी-मन्दिर में कौन है ?’’
किसी ने भी सवाल का जवाब न दिया, किन्तु कानों में जेवरों की झनकार की ध्वनि सुनाई दी। तब पथिक ने अधिक न कुछ कहकर वृष्टि धारा और हवा के आने की राह को बन्द किया और टूटी हुई अर्गला के बदले अपने शरीर को द्वार से लगाकर फिर कहा-‘‘मन्दिर में चाहे कोई भी हो, सुनो मैं द्वार पर सशस्त्र बैठा हूँ। मेरे विश्राम में विघ्न डालने वाला कोई पुरुष होगा तो उसे फल भोगना पडेगा; यदि स्त्री हो तो निश्चित होकर सो रहो। राजपूत के हाथ में तलवार और ढाल होने से तुम लोगों के पैर में कुश का अंकुर भी न लगेगा।’’
आप कौन हैं ?’’ स्त्री के स्वर ! में किसी ने यह प्रश्न किया।
प्रश्न सुनकर विस्मय के साथ पथिक ने कहा-स्वर से जान पड़ता है कि यह प्रश्न किसी सुन्दरी ने किया है। मेरे परिचय से आपको क्या ?’’
मन्दिर के भीतर से आवाज आई-हम लोग बहुत डर गई है।’’
युवक ने कहा-‘‘मैं चाहे जो होऊँ, मुझमें आप लोगों को अपना परिचय देने की शक्ति नहीं, किन्तु मेरे उपस्थित रहते अबलाओं के लिए किसी प्रकार के विध्न की आशंका नहीं है।’
रमणी ने जवाब दिया-‘‘आपकी बात सुनकर मुझे कुछ साहस हुआ, नहीं तो अब तक हम सब भय से अधमरी हो रही थीं। अब तक मेरी सहचरी आधी बेहोश है। हम सब सन्ध्या समय इन शैलेश्वर शिव की पूजा के लिए आई थी। इसके बाद आँधी-पानी आने पर हम लोगों के वाहक दास दासी हमें छोड़कर कहाँ चले गये, कुछ पता नहीं।’’
युवक ने कहा-चिन्ता न करिये, विश्राम कीजिए। कल सबेरे मैं आप लोगों को घर पहुँचा दूँगा।’’
रमणी ने कहा-‘‘शैलेश्वर आपका मंगल करें।’’
आधी रात को आँधी-पानी समाप्त होने पर युवक ने कहा-‘‘आप लोग यहाँ कुछ देर तक साहस कर ठहरें। मैं एक दीपक लाने के लिए पास के गाँव में जाता हूँ।’’
यह सुनकर जो स्त्री बात कर रही थी, उसने कहा-‘‘महाशय, गाँव तक जाने की जरूरत नहीं। इस मन्दिर का रक्षक एक नौकर समीप ही कहीं रहता है। चाँदनी निकल आई है, मन्दिर के बाहर ही आपको उसकी झोपड़ी दिखाई देगी। वह आदमी अकेला मैदान में रहता है, इसलिए वह घर में सदा आग जलाने की सामग्री रखता है।’’
युवक ने मन्दिर के बाहर आकर चाँदनी में मन्दिर रक्षक का घर देखा। उसने घर के द्वार पर जाकर उसे जगाया। मन्दिर रक्षक भयभीत हो, पहले द्वार न खोल एक ओर से झांककर देखने लगा। अच्छी तरह देखने पर उसे पथिक युवक में डाकू होने का कोई लक्षण दिखाई न दिया। विशेषतः उनके कहे अनुसार स्वर्णमुद्रा पाने का लोभ छोड़ना उसके लिए कष्टसाध्य हो गया। सात- पाँच का विचार कर मन्दिर रक्षक ने द्वार खोल प्रदीप जला दिया।
पथिक ने प्रदीप लाकर देखा कि मन्दिर में संगममर की शिवमूर्ति स्थापित है। उस मूर्ति के पिछले हिस्से में केवल दो स्त्रियाँ हैं। इनमें जो नवीना थी, वह प्रदीप देखते ही माथे का घूँघट खींच नीची निगाह कर बैठी, किन्तु उसके कपड़ों के भीतर से हीरा- जड़ा जूड़ा और विचित्र कारीगरी से बनी पोशाक और उस पर रत्नों के आभूषण की परिपाटी देख पथिक समझ गया कि यह नवीना किसी हीन वंश में उत्पन्न नहीं। दूसरी स्त्री के पहनावे में उसने कुछ कमी देख पथिक ने समझ लिया कि यह नवीना की सहचारिणी दासी होगी; फिर भी दासियों की अपेक्षा सम्पन्न है-उम्र पैंतीस वर्ष होगी।
सहज ही युवा पुरुष समझ गया कि उम्र में जो अधिक है, उसी के साथ इनकी बातचीत हो रही थी। उसने विस्मयपूर्वक यह भी देखाकि इन दोनों में किसी का भी पहनावा इस देशकी स्त्रियों जैसा नहीं, दोनों ही पश्चिम देशीय अर्थात् हिन्दुस्तानी औरतों जैसा कपडा पहने हैं। युवक मन्दिर के भीतर उपयुक्त स्थान में प्रदीप रख रमणियों के सामने खडा हो गया। तब उसके शरीर पर दीप की रोशनी पड़ने से रमणियों ने देखा कि पथिक उम्र में पचीस वर्ष से अधिक न होगा।
शरीर इतना लम्बा कि इतनी लम्बाई अशोभा का कारण होती, किन्तु युवक की छाती की चौड़ाई और सर्वाग के भरपूर भराव से वह लम्बाई शोभा सम्पन्न हो गई है। वर्षा से उत्पन्न नई दूब के समान अथवा उससे भी अधिक कान्ति थी; वसन्त प्रसूत नवीन पत्तों के समान वर्ण पर राजपूतों का पहनावा शोभा दे रहा था; कमर के कटिबन्ध में म्यान सहित तलवार और लम्बे हाथों में लम्बा शूल था; माथे पर साफा, उसपर हीरे का एक टुकड़ा, कान में मोतियों सहित कुण्डल गले में रत्नो का हार था।
एक-दूसरे को देख दोनों ही परस्पर परिचय जानने के लिए विशेष व्यग्र हुए किन्तु कोई भी परिचय पूछने की अभद्रता न कर सका।
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